जुस्तजू भाग --- 4
शिकवे बहुत है शिकायतें भी
पर मजबूर बहुत है दिल की बेईमानी से।
"खाना खाइए दी", सौम्या की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। उसने देखा वह हाथ में प्लेट लिए उसकी तरफ़ देख रही थी।
"आप लीजिए, मुझे भूख नहीं है।" उसने नजर फिरा ली।
"आप नहीं तुम बोलिये, और हां बिना खिलाए मैं नहीं जाने वाली यहां से। कमाल है ख़ुद डॉक्टर होकर भी बिना खाए सुबह से लगी पड़ी है। फिर कल आपको जाना भी है न।" सौम्या की बेतकल्लुफी और अपनेपन ने उसे अपनी ओर से ध्यान हटाने पर मजबूर कर दिया।
"कोई बहाना मत ढूंढना बहुत जिद्दी हूं मैं भी। बिना खिलाए यहां से नहीं टरकूंगी। और हां कल आप जायेंगी जरूर, आख़िर कितनों को अवसर मिलता है एम सीएच करने का वो भी न्यूरो सर्जरी में। आप लखनऊ ज़रूर जायेंगी एस जी पीजीआई में।"
"वहां अभी 10 दिन बाद तक रिपोर्ट कर सकते हैं और ये जनाब जो सेवा करवा रहे हैं। यहां के हालात देखकर 2 दिन रिलीविंग रोक सकते हैं।" आरूषि का मन नहीं था उसको अकेले छोड़कर रिलीव होने का। उसके इस अपनेपन ने मन जीत लिया था उसका।
"कोई नहीं कल सुबह सबको सीएचसी में शिफ्ट करवाने की व्यवस्था करवा चुके हैं ये। बस आप चुपचाप खाना खाइए मैं संभाल लूंगी।"सौम्या ने उसके कुछ बोलने को खुले मुंह में कौर डाल दिया।
बेमन से किसी तरह प्लेट ख़त्म की। उसका सारा ध्यान केवल अनुपम पर ही था। "अब जाओ, सो जाओ। कोई जिद नहीं, बड़ी माना है न!!
उसने सौम्या को सोने भेज ही दिया और अकेले होते ही पहुंच गई अपनी पुरानी यादों में।
(कहानी भूतकाल में)
दिल्ली स्टेशन पर कालका की ट्रेन रवाना होने का समय होने वाला ही था। बड़ी मुश्किल से मैनेज कर ही लिया था ट्रेन पकड़ना। एम्स में एमबीबीएस करने के बाद इंटर्नशिप कंपलीट कर रही थी। पर इमरजेंसी आ गई और वह निकल नहीं पाई थी। चढ़ते ही ट्रेन चल पड़ी। उसका सेकंड एसी में टिकट बुक था। मौसाजी ने अचानक मनाली बुला लिया था। उसकी दी की शादी तय कर दी थी। जाना ज़रूरी भी था। मौसाजी अपने परिवार सहित ऑस्ट्रेलिया शिफ्ट हो गए थे। दी की एमएस कंपलीट हो चुकी थी और उन्हें भी बाहर ही जाना था। दी के साथ एम्स में वह उसकी सीनियर और मेंटोर भी रही थी। तो उनकी शादी में जाना मैनेज किया था आरूषि ने। सीट पर पहुंची तो किसी और का सामान पड़ा था। उसने कुछ मिनट इन्तजार किया मालिक के लौटने का, फिर एक ओर कर वह बैठ गई। तभी उलझे बालों और संतो के जैसे दाढ़ी बढ़ाए लंबा सा एक शख़्स वहां आ पहुंचा। ट्रेन रफ्तार पकड़ चुकी थी।
"मेरा सामान क्यों हटाया? ये मेरी सीट है।"उसने विरोध किया।
"नहीं मेरी है।"
"मैं देहरादून से बैठा आ रहा हूं तो यह आपकी कैसे हो गई?"
"आप अनपढ़ तो नहीं लगते। आपकी सीट दिल्ली तक ही बुक होगी सिस्टम में। अब जाइए, कोई ठिकाना ढूंढिए। मुझे सोना है।"
बहस चल ही रही थी कि टीटीई आ गया।
"जी आप बताइए मैडम, क्या बात है?"
"देखिए यह मेरी सीट है जो दिल्ली से बुक है। आप इन्हें कोई और सीट दे दे।"
"पर यह तो चार्ट में देहरादून से बुक्ड है वो भी इनके नाम से।"
"लगता है आप दिल्ली से चार्ट लेना भूल गए। यह मेरी सीट है, ये देखिए मेरा टिकट।"
"ओह मैडम आपने गलती कर दी। यह ट्रेन 12.05 पर डिपार्चर होती है दिल्ली से इसलिए आपकी ट्रेन कल चली गई।"
वाकई सही बात थी।
"पर इतनी रात में अब कहां जाऊं ?
"पर इस कोच में और कोई सीट खाली नहीं है और आपको जुर्माना भी भरना होगा, डॉक्टर आरूषि!!" टीटीई उसके आइडेंटिटी कार्ड पर उसका नाम देखकर बोला।
उसकी परेशानी देखकर वह अनजान यात्री बोला,"सर आप जुर्माना ले लीजिए। और आप डॉक्टर, ऐतराज न हो तो मैं इस सीट को आपसे शेयर कर सकता हूं। बेशक लेट नहीं पाएंगी आप, पर बैठ सकती हैं।"
उसे वह बेहद अटपटा सा लगा पर कोई चारा न देखकर उसने हालात से समझौता कर लिया। कुछ देर वह सही से बैठी रही फिर थकान, रात और ट्रेन का सफ़र आख़िर नींद ने असर दिखाना शुरू कर दिया था। वह धीरे धीरे सीट घेरती जा रही थी। साथ ही उसका भाग्य भी बदल रहा था।
आरूषि नहीं पहचान सकी पर अनुपम ने पहचान लिया था। बाकी बचा कन्फ्यूजन भी नाम सुनकर ख़त्म हो गया था। वह सिमटने लगा और आरूषि को लेटने के लिए जगह दे दी। सोती हुई आरूषि आकर्षक लग रही थी उसे।
उसे चंडीगढ़ उतर जाना था फिर घर से कार लेकर मनाली निकलना था अपने दोस्त की शादी में। जो बेहद अचानक हो रही थी। सर्दी के दिन थे और ट्रेन चंडीगढ़ सुबह 5.30 पर उतारती थी। अनुपम को भी झौंके आने लगे तो वह बाहर से मुंह धोकर आ गया।
सुबह अपने नियत समय से कुछ पहले ही ट्रेन चंडीगढ़ पहुंच गई। अनुपम उतर गया।
ट्रेन कालका पहुंची तो आरुषि की आंख खुली। यहां से मौसाजी ने कार का इंतज़ाम करवा दिया था, मनाली तक। उसे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि भाग्य उसके और उस अनजान यात्री के साथ क्या खेल खेलने वाला था।
मनाली पहुंचते ही दी से बात भी करने को नहीं मिली। दी को पार्लर भेजा गया था। बारात आने का समय हो चला था पर दी !! उनका तो कुछ पता ही नहीं था। मौसाजी और मौसीजी बेहद परेशान थे। आज बात इज्ज़त बचाने की थी। कुछ देर बहस के बाद अचानक आरुषि का खयाल आया उन्हें और उसे दुल्हन बनाकर कुछ वक्त अपनी बेटी को ढूंढने के लिए निकाल सकते थे वे लोग। आरुषि अपने में मगन तैयार हो चुकी थी कि मौसीज़ी का बुलावा आ गया। वह उस कमरे में पहुंची ही थी कि उसकी मौसी उसके कदमों में आ गिरी। वह हक्की बक्की सी उन्हें देख ही रही थी कि मौसाजी अपनी पगड़ी उसके पैरों में डाल चुके थे।
"यह क्या है सब?? आप लोग कुछ बताएंगे भी।"
"आरूषि तेरी दी ने धोखा दिया हमें। बेटा कुछ देर संभाल ले, जब तक हम कैसे भी उसे ढूंढकर लाते हैं। अब हमारी इज्ज़त तेरे हाथों में है।"
वह सन्न खड़ी थी। क्या करे, समझ ही नहीं आ रहा था। मौसीजी ने जल्दी से उसे दुल्हन की ड्रेस पहनवा दी थी। दी और वह एक सी लंबाई की थी तो उसे लगभग फिट आ गई थी।
बारात आ गई थी पर पता नहीं क्या जल्दी थी कि तुरंत वरमाला करवा दी गई और फेरों की भी तैयारी कर ली गई। आरूषि राजपूती रिवाज़ में घूंघट में ही थी। जब तक कुछ समझ पाती फेरे शुरु करवा दिए गए। उसके दोनों तरफ़ लोगों ने घेर रखा था तो वह उठ भी नहीं पा रही थी। उसने घूंघट हटाकर इस सब को रोकना चाहा पर मौसीजी ने कसकर हाथ पकड़ लिया और उसके कानों में मिन्नतें करने लगी कि विदा के समय मैनेज कर लेंगे।
पर यह क्या!!!! फेरे होते ही बेहद जल्दबाजी में सारे रीति रिवाज निपटाकर विदाई करवाई जा रही थी। उसने अचानक महसूस किया कि दूल्हे ने कसकर उसका हाथ दबा दिया था। उसके हाथ हल्के हल्के कांप रहे थे।
"इन लोगों ने गन्स लगा रखी है। कृपया चुप रहें, मैं मौका मिलते ही आपको निकाल दूंगा और ख़ुद भी निकल जाऊंगा।" बेहद धीरे से फुसफुसाया वह। वह चौंक पड़ी कल यही आवाज़ उसने कोच में सुनी थी, उसके सहयात्री की !!
सुबह के 5 बजे उसे जबरदस्ती विदा होना पड़ा। वह जिस घर पहुंची वहां उसके स्वागत की तैयारियां की जा रही थी। अजब सी भागम भाग लगी थी।
तभी ही अचानक एक कार तेज़ी से आकर रूकी और शोर मच गया।
कार से एक और दूल्हा दुल्हन निकलकर घर की ओर बढ़े। उसने ज़रा सा घूंघट उठाकर देखा।
"अरे !!! यह तो दी है !! यह यहां किसके साथ आई हैं ?? वह कुछ सोच पाती कि एक आवाज़ गूंजी।
"खबरदार जो घर में घुसे। भले ही तुम मेरे इकलौते बेटे हो पर तुम्हें माफ़ नहीं करूंगा मैं।"
"यह क्या ?? तो दी जीजाजी के साथ भागी थी !! पर क्यों ?? और यह कौन है मेरे साथ?? आरूषि को कुछ समझ नहीं आ रहा था
शोर की तरफ़ ध्यान था सबका। तभी उसका हाथ पकड़ा उसने, जिसके साथ उसके फेरे हुए थे।
"निकलिए यहां से। उन लोगों को आपस में सुलटने दीजिए।"उसने उसके कान में कहा और खींच ले गया बाहर।
बाहर एक कार खड़ी थी। उसने उसे बिठाया और उसी होटल में ले आया जहां वह भी ठहराई गई थी।
"मेरा सामान यहीं है, मैं ले लेता हूं और आपको भी आपके माता पिता के पास छोड़ दूंगा।"
"वे मेरे मौसी मौसाजी थे और आपकी शादी उनकी बेटी से होनी थी।"
"ओह !! आप भी अपनी बहन के धोखे का शिकार हुई हो और मैं अपने दोस्त के धोखे का।"
Shaqeel
24-Dec-2021 02:30 PM
حالات انسان کو مجبور کر دیتے ہے
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Ajay
29-Dec-2021 10:40 PM
??? मैं उर्दू पढ़ नहीं पाता हूं 🙏🏻🙏🏻
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Ajay
12-Feb-2022 10:12 PM
Thanks to Google lens. I just read out your comment. You are absolutely right.🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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Sandhya Prakash
15-Dec-2021 06:49 PM
Bahut badhiya..
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Ajay
15-Dec-2021 08:51 PM
🙏🏻🙏🏻
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Niraj Pandey
07-Dec-2021 09:31 AM
बहुत ही शानदार लिखते हैं आप आपकी लेखन शैली में कसक है जो भी पाठक आपकी रचना को पढ़ लेता है फिर वो उन्हें पूरा किए बिना नही रह सकता
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Ajay
07-Dec-2021 09:05 PM
पांडे जी आपका साथ और समीक्षा बहुत मूल्यवान है मेरे लिए।
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